Sunday 18 December 2011

"द डर्टी पीपल"

"द डर्टी पीपल" ये लाईन्स सही है या नहीं...?? मैं  इसी असमंजस में पड़ा हुआ हूँ... क्या सिर्फ कुछ लोग डर्टी हैं....??? या हम सब के सब डर्टी हो चुके हैं...??? सच तो ये है के हम सब के सब कहीं न कहीं से डर्टी हैं... कुछ लोग अन्दर से हैं... कुछ लोग अन्दर और बहार दोनों से डर्टी हैं.... हमारे विचारों में डर्टीनेस आ चुकी है... यही कारण है के आज हमारे सामने जो कुछ भी परोसा जाता है... हम उसे ग्रहण करने को तैयार होते हैं... चाहे वो जो भी हो.... हमें कोई फर्क नहीं पड़ता के वो क्या है ...?? कैसा है...??? अच्छा है या बुरा है..?? सुन्दर है या फूहड़ है...??
                                                                                कहते हैं कि सिनेमा समाज का दर्पण होता है... और समाज इतने अभद्र रूप से बदल रहा है के प्रोडक्शन हॉउस धड़ल्ले से अश्लील फिल्मे बनाये जा रहे हैं... और वो अशलील फिल्मे धड़ल्ले से पैसा कमा रही हैं.... मतलब हम सब अशलील हुए जा रहे हैं.... मैं जिस सिनेमा हॉल में "द डर्टी पिक्चर" देखने गया था... वहाँ एक फॅमिली भी आई हुई थी... मुझे थोड़ी झिझक हुई के एक फॅमिली द डर्टी पिक्चर देखने आई हुई है... फिल्म के पोस्टर पर साफ़ अडल्ट का साइन बना हुआ है... पर उन्हें कोई झिझक नहीं हुई... और वो लोग बड़े आराम से फिल्म का मज़ा ले रहे थे...
                                                                                  पता नहीं... डायरेक्टर फिल्म में क्या दिखाना चाहता था... सिल्क स्मिता कि ज़िन्दगी में ऐसा कुछ था ही नहीं के उसे लेकर एक पूरी फिल्म बना दी जाए... गाँव कि लड़की शहर में आना... शहर में आकर फिल्म इंडस्ट्री में काम करना तक समझ में आता है... ऐसा नहीं है के सिल्क स्मिता को पता नहीं था के वो क्या कर रही है... सीधे रस्ते से उसे इंडस्ट्री में एंट्री नहीं मिली तो उसने  कपडे  उतरना  शुरू  किया... उसे भी पता था के इसके अलावा कोई और रास्ता नहीं है उसके फिल्म इंडस्ट्री में एंट्री लेने का... इस रस्ते से उसे नाम मिला, शोहरत मिली, पैसा मिला... और जब उसे सब कुछ मिल गया तो उसे अपनी ही छवि से शिकायत होने लगी.... उसे लोगों कि नज़रों से शिकायत होने लगी... उसे लोगों कि बातों से शिकायत होने लगी... और इसी वजह से उसने आत्महत्या कर ली... खुद के चुने हुए रस्ते पे चल के सिल्क ने सब कुछ पा लिया... फिर भी खुदखुशी  कर ली... सिर्फ इसलिए के लोगों के सामने उसकी छवि अच्छी नहीं थी... ये बात समझने लायक नहीं है...  फिल्म में एक सीन पर ये दिखाया गया के जहां पर सिल्क का इंटरव्यू होना था... और सिल्क को अपने घर (झोपड़े) में इंटरव्यू देना था.. वहा अपने झोपड़े को और अपनी गरीबी को छुपाने के लिए सिल्क एक बात टब में नहाते हुए अपना इंटरव्यू देती है ताकि किसी कि नज़र उसके झोपड़े पर ना जाए... सबकी नज़र उसके नग्न शरीर कि ओर जाए... ठीक उसी तरह एकता कपूर को भी पता था के इस स्टोरी में कोई दम नहीं है... इसलिए उसने नग्नता का सहारा लिया... लोग स्टोरी कि तरफ ध्यान न दे... इसलिए उसने विद्या बालन के जिस्म कि ओर लोगो का ध्यान भटका दिया... मुझे पूरा विश्वास है के पूरी फिल्म में सबसे ज्यादा पारिश्रमिक केमेरामैन को ही मिला होगा... क्योंकि उसी ने सबसे ज्यादा मेहनत की है, कैमरे का पूरा फोकस सिर्फ और सिर्फ विद्या बालन के ब्लाउज पर ही था... ये एक नायाब तरीका था एकता कपूर का लोगों को कहानी से भटकाने और फिल्म को हिट कराने का... एकता कपूर ने पूरी फिल्म बना दी एक वाहियात सब्जेक्ट पर... और बेशक वो कामयाब भी रही... एकता कपूर कि कामयाबी में हम सबकी नाकामी छुपी हुई है... 
                                                                                    फिल्म मर्दों को क्यों पसंद आई ये तो मुझे बताने कि ज़रुरत नहीं... लेकिन औरतो को को क्यों पसंद आई... इसके बारे में सोचने पे पता चला कि एक सोफ्टकॉर्नर था विद्या के लिए औरतो के मन में... फिर कुछ लोग ऐसे भी हैं... जिन्हें फिल्म कि कहानी में भी दम लगा... जो ये बात कहते हैं के कहानी में दम था... मैं दाद देता हूँ ऐसे लोगो कि बौद्धिक क्षमता की....  अब ऐसा हो गया है के हमें इंटरटेनमेंट के नाम पर कुछ भी परोसा जाए... हम उसे ग्रहण करने को तैयार हैं... चाहे वो अच्छा हो या बुरा... सुन्दर हो या फूहड़... लोग कहते हैं के ज़माना बदल रहा है... ये किसी को नहीं दिख रहा है.. के ये अच्छा है या बुरा.... सबसे बड़ी बात तो ये है के क्या इससे किसी का फायदा हो रहा है...??? जवाब है नहीं.... इससे किसी का फायदा नहीं है सिवाय फिल्म बनाने वालो के... और वो तो वही देंगे जो पब्लिक को पसंद है... तो क्या हमें यही फूहड़ता पसंद है...?? इस फिल्म ने ये साबित कर दिया है के आज भी भारत एक पुरुष प्रधान देश बनना हुआ है... और हम बातें करते हैं वुमन एम्पावरमेंट कि... सेंसरबोर्ड भी अपनी जगह सही है... उसने तो पहले ही चेता दिया है एडल्ट सिग्न लगा के... अब फिर भी कोई अपनी फॅमिली के साथ फिल्म देखने जाए तो इसमें सेंसरबोर्ड की कोई गलती नहीं है....
                                                                                  ये किस दिशा में जा रहे हैं हम... ये सवाल हम सभी को अपने आप से करना चाहिए.... कपड़ो के अन्दर हम सभी नंगे होते हैं.... लेकिन सभ्यता कहती है के हमें कपडे पहनने चाहिए... क्या हम सब डर्टी हो चुके हैं.... या अभी डर्टी होना शुरू किया है...???
 
नोट :- मेरे इस ब्लॉग पे कुछ लोगो का ये कहना होगा के जब मुझे इतनी शिकायत है तो मैंने फिल्म देखी ही क्यों...??
जवाब :- बिना देखे, बिना समझे, बिना जाने... बाते करना बेकार है.... पहले देखो... समझो... फिर कहो....
 
बादशाह खान

2 comments:

  1. जमाना तेजी से बदल रहा है,...आगे-आगे देखिये होता है क्या....

    मेरे पोस्ट के लिए "काव्यान्जलि" मे click करे

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  2. डर्टी लोगों की डर्टी कहानी

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