Friday 2 December 2011

ख़ुशी, गम और बचपन...

                                      मैं रोज़ सुबह घर से निकलते ही भागता हुआ बस स्टैंड जाता हूँ... सुबह बस स्टैंड की घटिया सी चाय लेकर आराम से बस में बैठकर खिड़की से बाहर देखने लगता हूँ... पूरे दिन में यही एक वक़्त होता है जब दिमाग शांत होता है.... आज की सुबह भी रोज़ की तरह ही थी... में अपनी चाय लेकर बस में खिड़की वाली सीट पर बैठकर आराम से बाहर देखने लगा.... पॉवर हाउस आ चुका था... और भिलाई-३ वाले नाले के पुल पर हमारी बस जा कर खड़ी हो गई... मैं बाहर ही देख रहा था... भिलाई-३ के ठीक पहले वाला वो नाला बस्ती वालो के लिए गंगा से भी ज्यादा पवित्र है... और हो भी क्यों ना.... आखिर उसी नाले से उनके सारे दैनिक काम होते हैं... नाले के ठीक बगल में एक काला सा बच्चा नंगा खेल रहा था... मुश्किल से ७ या ८ महीने का ही होगा वो... सुबह सुबह अपने पिता के साथ नाले पर आ गया होगा.... बच्चे का पिता बड़े आराम से दातुन घिसने में लगा हुआ था... मानो जैसे दूर कही बांसुरी की धुन उसे सुने दे रही हो.... वो बच्चा रेंगते हुए बार बार अपने पिता के पास जा रहा था... और उसे कुछ दिखाने की कोशिश कर रहा था... पर उसका पिता तो ना जाने किस अजीब से सुकून में था.... मैंने उस बच्चे की ओर थोडा फोकस किया और देखा के वो अपने ऊपर धुल उड़ा उड़ा के खेल रहा था... थोड़ी देर के बाद जाम खुल गया और हमारी बस वहा से आगे निकल गई... कुम्हारी के पहले ठीक साईं बाबा मंदिर के सामने हमारी बस में एक महिला किसी बूढी औरत के साथ बैठी... देखने से वो बूढी औरत उस महिला की सास लग रही थी... महिला किसी अच्छे परिवार की लग रही थी.. उसके हाथ में एक बच्चा था... ये बच्चा करीब १ या सवा साल का रहा होगा... बच्चा बहुत सुन्दर था... मेहरूनी रंग के स्वेटर के ऊपर नीले रंग की रेशमी टोपी उस पर बहुत अच्छी लग रही थी... मैंने उस महिला से बच्चे का नाम पूछा... बच्चे का नाम रक्षित था.. रक्षित बहुत रो रहा था.. और वो महिला रक्षित को चुप कराने की कोशिश कर रही थी... मैंने उस बच्चे को अपनी गोद में लिया के शायद ये मुझसे चुप हो जाए... लेकिन वो चुप न हुआ.. बस थोड़ी ही देर में हम रायपुर पहुँच गए... और मैंने रोते हुए रक्षित को उस महिला को वापस दे दिया... ऑफिस के आते तक और ऑफिस पहुँचाने के १ घंटे बाद तक मेरे दिमाग में दोनों ही बच्चो के विचार आ रहे थे.. एक तो उस काले बच्चे के बारे में जो नंगा धूल में खेल रहा था... और दूसरा रक्षित के बारे में...
                                   एक तरफ वो काला बच्चा था... जो सुबह की इतनी ठण्ड में भी नंगे बदन नाले के पास बैठकर बड़े मजे से धुल उड़ा कर खेल रहा था... उस बच्चे का पिता खुद में इतना खोया था के शायद उसे ध्यान भी न हो के वो अपने बच्चे को साथ में लाया है... और दूसरी तरफ रक्षित था... जो अपनी माँ की गोद में... स्वेटर टोपी लगाये हुए था... और फिर भी रो रहा था...
                                   बिलकुल विपरीत हालात में एक बच्चा हंसी ख़ुशी खेल रहा है... और दूसरी तरफ... बिलकुल अनुकूल परिस्थिति में एक बच्चा फूट फूट के रो रहा है... ऐसा क्या है...?? फिर सोचने पे लगा के हम तो अपनी ज़िन्दगी में भी ऐसे ही होते हैं... के हमारे पास सब कुछ होते हुए भी हम दुखी होते हैं... और जिसके पास कुछ नहीं होता वो हंसी ख़ुशी ज़िन्दगी की हर बात का मज़ा लेता रहता है... जैसे जैसे हम सम्पन्नता को प्राप्त करने लगते हैं... हमारे दुखों के पहाड़ की उंचाई और भी ज्यादा बढ़ने लगी है... और खुशियों का मैंदान छोटे से छोटा होता जाता है... क्योंकि जिसके पास कुछ नहीं होता... उसे कुछ चाहिए भी नहीं होता.... और जिन्हें जो चाहिए होता है... वो मिलने के बाद उनको उसके आगे का कुछ और चाहिए होता है... फिर कुछ और... फिर कुछ और... और इस तरह हम अपनी आशाएं बढ़ाकर उस ख़ुशी को अनदेखा कर देते हैं जो हमारे पास है.... और उस दुःख को खोजने लगते हैं जो दूर खड़ा है... और खुद चलकर हमारे पास नहीं आएगा... हम खुद ही उसके पास चले जाते हैं.... कभी-कभी तो मुझे लगता है के हर इंसान के पास अपने अलग ही तर्क होते हैं दुखी होने के लिए... और सबको लगता है की सारे संसार में उसी का दुःख सबसे बड़ा है... वो दुखी नहीं है फिर भी उसे लगता है के वो दुखी है.... ख़ुशी के बारे में कोई सोचता भी नहीं है... किसी बहुत बड़े आदमी ने कहा है कि "खुश होना या दुखी होना हम खुद तय करते हैं...."
                                    इस बारे में दूसरी तरह से सोचने पर मुझे इस बात का एहसास हुआ के वो काला नंगा बच्चा क्यों इतनी ख़ुशी से खेल रहा होगा... जबकि रक्षित माँ की गोद में... इतने लोगो के बीच में होने के बाद भी रो रहा था... मुझे लगता है के उस काले बच्चे की ख़ुशी का कारण उसकी आज़ादी थी... और रक्षित के रोने का कारण उसका बंधन में होना था... जीवन में हम जब तक आज़ाद होते हैं... तब तक खुश होते हैं... जैसे ही कोई बंधन आता है... हम दुखी हो जाते हैं... बंधन हमेशा इंसान के जीवन में दुःख लाता है.... और आज़ादी ख़ुशी.... बचपन में स्कूल का बंधन हमें दुखी करता है... बड़े होने पर नौकरी का बंधन हमे दुखी करता है... और शादी होने के बाद पत्नी या पति का बंधन हमें दुखी करता है... कुल मिलाकर बंधन सिर्फ और सिर्फ दुःख ही देता है.... 
                                     मुझे लगता है के ज़िन्दगी में ये दो कारण बहुत बड़ी वजह हैं हमारी ख़ुशी और हमारे ग़म के.... एक तो ग़म कि तलाश... और दूसरा आज़ादी.... अब ये हम पर निर्भर करता है... के हम ज़िन्दगी में ख़ुशी कि तलाश करते हैं या ग़म की... आज़ाद परिंदों की तरह उड़ान भरते हैं या पिंजरे के पंची की तरह घर के आँगन में बंधे होते हैं....

आपका

बादशाह खान

4 comments:

  1. बहुत उम्दा तरक्की.

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  2. बहुत बहुत शुक्रिया दोस्त.....

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  3. Bilkul Galat ho raha hai.aadmi janam leta hai to nanga hota hai or marta hai to bhi nanga hota hai.point to be noted is tht "kya humare andar sharm naam ki koi bhaat hai ya hum besaram ho gaye hai.pehchana aapko hai.

    VERY NICE Badshah Bhai.

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